परवेज अख्तर/सिवान:
बिहार विधानसभा चुनाव के संबंध में एग्जिट पोल्स की भविष्यवाणी के बाद चर्चा जोरों पर रही कि नीतीश कुमार अपनी अंतिम पारी में सत्ता गंवा देंगे, लेकिन सुशासन बाबू उस कहावत को एकदम सही साबित करते दिखे, जो कहती है, ‘मरा हाथी सवा लाख का’ यह बात सच है कि नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू इस चुनाव में 43 सीटों तक सिमटकर रह गई, जबकि ‘छोटे भाई’ की भूमिका वाली बीजेपी 74 सीटों पर बाजी मार ले गई, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि नीतीश फैक्टर को सीधे-सीधे राइट ऑफ कर दिया जाए.
जेडीयू के 43 सीटों पर सिमटने के पीछे कई और फैक्टर्स भी हैं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर मोदी फैक्टर बिहार में चला तो उसके पीछे सुशासन बाबू के लोकल फैक्टर का भी अहम योगदान है. यदि ऐसा न होता तो पीएम मोदी चुनाव से बिहारियों से ये अपील कभी न करते कि ”मुझे बिहार के विकास के लिए नीतीश कुमार की सरकार चाहिए.” पीएम नरेंद्र मोदी के ऐसे बयान शायद ही कभी देखने को मिले जब उन्होंने अपने सहयोगी दल के मुखिया का नाम लेकर अपील की हो, इसलिए यह दुर्लभ बयान था और इससे समझ लेना चाहिए नीतीश फैक्टर का इस चुनाव में और एनडीए की जीत में अहम योगदान रहा. हां, यह बात जरूर है कि जेडीयू को इस बार काफी सीटों का नुकसान हुआ.
अब जरा उस सवाल पर चर्चा करते हैं जो सबसे बड़ा है- आखिर जेडीयू की सीटें इतनी कम क्यों हुई? दरअसल, चिराग पासवान का अकेले चुनाव लड़ना नीतीश कुमार को ज्यादा खल गया. लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया चिराग पासवान चुनाव प्रचार में खुद को मोदी भक्त तो बताते रहे, लेकिन नीतीश कुमार को पूरे कैंपेन में कोसते रहे. बिहार पर पैनी नजर रखने वाले कई चुनाव विश्लेषक ऐसा मानते हैं कि LJP ने करीब 40 सीटों पर नीतीश कुमार की पार्टी की जीत के समीकरणों को बिगाड़ दिया. हालांकि, एनडीए से अलग जाकर चिराग को भी कोई खास फायदा नहीं हुआ, लेकिन उनकी पार्टी नीतीश कुमार को काफी डैमेज कर गई. एनडीए से अलग होकर LJP ने बिहार की कुल 243 विधानसभा सीटों में से 137 पर उम्मीदवार खड़े किए थे. इनमें से करीब 40 सीटें ऐसी रहीं, जहां पर जेडीयू को सीधा नुकसान हुआ.
नीतीश कुमार और लालू यादव के दोनों बेटों- तेजस्वी और तेज प्रताप के बीच महागठबंधन टूटने के बाद से ही खूब बयानबाजी हुई. कभी तेजस्वी ने उन्हें चाचा कहकर तंज कसे तो कभी नीतीश कुमार ने वंशवाद और काबिलियत पर सवाल उठाते हुए उन्हें घेरा, लेकिन एक बात तो सौ फीसदी देखने को मिली और वो ये कि नीतीश कुमार ने नहीं सोचा था कि तेजस्वी यादव को बिहार का वोटर गंभीरता से लेगा. उन्होंने कमोबेश राहुल गांधी के जैसी छवि की शख्स तेजस्वी में देखा और इसी छवि के आसपास तेजस्वी पर हमले भी किए, जिससे कि अखबारों में वो बयान छपें और बिहार का जनमानस तेजस्वी को भी राहुल गांधी की तरह एक असफल और नॉन सीरियस राजनेता मान ले, लेकिन तेजस्वी बिहार बाढ़, शेल्टर होम कांड, कोरोना, बेरोजगारी जैसे मुद्दों के जरिए कहीं न कहीं बिहार के असल मुद्दों को जनता के सामने रखने में सफलता पाई.
आरजेडी ने इस चुनाव में बिना लालू यादव के जिस प्रकार से सफलता पाई है, उससे कोई भी चुनावी विश्लेषक ये कहने में गुरेज नहीं करेगा कि बिहार के राजनीतिक पटल पर लालू के लाल का उदय हो चुका है और वो लंबी सियासी पारी खेलने के लिए जरूरी जमीन तैयार कर चुके हैं, इसलिए तेजस्वी को बच्चा समझने की भूल नीतीश कुमार अब आगे बिल्कुल नहीं करेंगे. बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के नतीजों से एक बात और स्पष्ट हो चुकी है कि कांग्रेस अब महागठबंधन पर बोझ बन चुकी है. 70 विधानसभा सीटों पर लड़ने वाली कांग्रेस महज 19 पर ही जीत दर्ज पाई. कई चुनावी विश्लेषक अपना स्पष्ट मत दे रहे हैं कि तेजस्वी ने कांग्रेस को 70 सीटें देकर गलती कर दी.
अगर कांग्रेस को 70 की जगह 30 सीटें दी जातीं और बची हुई 40 सीटों पर आरजेडी ने अपने ही उम्मीदवार उतारे होते तो उनमें से 10 सीटें और मिलने पर आज महागठबंधन बहुमत के आंकड़े पर होता है और तेजस्वी सीएम पद की शपथ ले रहे होते, लेकिन कांग्रेस ने महागठबंधन ने संभावनाओं को काफी हद तक चोट पहुंचा दी. इस बार के नतीजे से एकदम स्पष्ट है कि तेजस्वी की सत्ता के बेहद करीब आते-आते रह गए, अगर उन्होंने कांग्रेस का बोझ अपने कंधों पर न ढोया होता तो निश्चत तौर पर आज वो सीएम पद की शपथ ले रहे होते.
इस बार के चुनाव नतीजों में आरजेडी 75 सीटों पर जीत दर्ज करके सबसे बड़ी पार्टी बनी है, वहीं बीजेपी 74 सीटों के साथ दूसरे नंबर है. जेडीयू 43 सीटों के साथ तीसरे की नंबर की पार्टी है. बाकी लेफ्ट, ओवैसी की पार्टी, वीआईपी, बसपा में सीटें बंटी हैं. यह बात सही है कि इस समय में एनडीए को बहुमत मिल गया है, लेकिन कुछ देर के लिए अगर महागठबंधन या एनडीए को अलग करके तीन बड़ी पार्टियों की सीटों को देखा जाए तो कोई भी दल ये नहीं कह सकता है वह अकेला बिहार में प्रचंड लहर के साथ अपने दम पर चुनाव जीत सकता है.
जातियों में बंटा बिहार का यह सियासी चरित्र लंबे समय से ऐसा ही बना हुआ है. जब तक वहां एक दल, एक चेहरे की प्रचंड लहर के साथ वोट नहीं डलेगा तब तक विकास की रफ्तार गठबंधन की गांठों के चलते थमी ही रहेगी. ऐसा संभव दिखता तो नहीं, लेकिन बिहार में कोई एक चुनाव ऐसा होना चाहिए जब एक चेहरे और एक पार्टी के निशान पर जनता बहुमत का ठप्पा लगाए, जिससे विकास की सुस्त रफ्तार तेज हो, बहरहाल, इस चुनाव में तो बीते कई दशकों की तरह गठबंधन के सहारे ही सत्ता का रास्ता जनता ने चुनकर भेजा है, यही अंतिम सत्य है, इसे स्वीकार करना होगा.