- 70 के दशक में 50 फीसदी ही लोग ही करते थे छठ महापर्व
- आज घर-घर में हर परिवार की महिलाएं कर रहीं हैं छठ व्रत
परवेज अख्तर/सिवान: भोजपुरिया समाज में छठ महापर्व कई पीढ़ियों से मनाया जा रहा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस महापर्व के प्रति लोगों की आस्था निरंतर बढ़ते जा रही है। जबकि समय के साथ कई पर्व-त्यौहारों को मनाने के तौर-तरीकों में बदलाव देखा जा चुका है। 2005 से लगातार छठ का पर्व करते आ रहीं परशुरामपुर गांव की मालती राय बतातीं हैं कि जब इस पर्व को करने में मुझे सुख और शांति की अनुभूति होती है। इसके पहले मेरी सास फूलबदन देवी इस पर्व को करतीं थीं। व्रत के दूसरे दिन 12 घंटे तक उपवास रहने के बाद अगले दिन 24 घंटे के लिए निर्जला उपवास रहना होता है। सामान्य दिनों में कुछ घंटे भी भूखा नहीं रहा जा सकता। लेकिन, इस पर्व को करने के दौरान कभी कठिनाई तक महसूस नहीं हुई। मालती राय ने कहा कि 70 के दशक में जब उनकी उम्र 10-12 साल की थी तो देखने-सुनने को मिलता था, आज कि तरह सभी के घर छठ पूजा नहीं होता था।
35 से 50 फीसदी घरों के लोग ही इस व्रत को कर पाते थे। तब गरीब लोगों के पास पेट भरने तक के पैसे नहीं थे। आज गरीब हो या अमीर किसी में कोई फर्क ही नहीं रहा। मालती राय के पति व शिक्षक शंभुनाथ राय ने बताया कि पहले छठ का प्रसाद (ठेकुआ) बनाने में रिफाइंड की जगह पर सरसों का तेल या घी इस्तेमाल होता था। छठ पूजा की सामग्री में उपयोग होने वाले फल सुथनी, अदरक, हल्दी, लौकी, शरीफा, अरूई, मीठा नींबू (गागल), ईंख, केला, मूली और लौकी आदि बाजार से खरीदना नहीं पड़ता था। बाजार में यह सब बिकता भी नहीं था। सभी सामान आस-पड़ोस से मांग लेते थे या लोग पहुंचा देते थे। ठेकुआ के लिए गेहूं को धोकर और कुटाई करके सुखाने के बाद हाथ की चक्की (जांत) में पिसाई की जाती थी। ठेकुआ चीनी के बजाय गुड़ (मीठा) में बनता था। खरना का प्रसाद बनाने में ईंख का रस इस्तेमाल होता था। लेकिन, आज सबकुछ बाजार में उपलब्ध है। इस महापर्व के प्रति लोगों की आस्था भी बढ़ी है। गांव में मौजूद मुस्लिम समुदाय के लोग भी इस व्रत को अपनी मन्नत के अनुसार करते रहे हैं।