सदियों पुराने इमामबाड़ों का शहर पटना

0

पटना: बिहार में कोरोना गाइडलाइन के सबब मुहर्रम की उतनी धूम नहीं है, जितनी रौनक वैश्विक महामारी से पूर्व देखने को मिलती थी. इस बार घरों में ही अलम सज रहे, मर्सिया, नौहाखानी और मजलिसें हो रही हैं. न अखाड़ा, न दुलदुल निकला और न मातमी जुलूस. इमामबाड़े भी इस बार सुनसान हैं. पटना सिटी के इमामबाड़ों का अपना इतिहास है. ओल्ड पटना में स्थित इमामबाड़े कर्बला में पैगम्बर ए इस्लाम हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत हुसैन की शहादत की दास्तान से लबरेज हैं. यहां के इमामबाड़े कर्बला में हजरत हुसैन और 72 शहीदों की याद ताजा करते रहे हैं.

विज्ञापन
pervej akhtar siwan online
WhatsApp Image 2023-10-11 at 9.50.09 PM
WhatsApp Image 2023-10-30 at 10.35.50 AM
WhatsApp Image 2023-10-30 at 10.35.51 AM
ahmadali

मुहर्रम के महीने में इमामबाड़े सजे रहते हैं और शियाओं के घरों से दो महीने आठ दिन नौहा, मर्सिया, अजादारी की आवाजें आती हैं. दरअसल, पटना सिटी में शिया समुदाय की एक बड़ी आबादी है. इस लिहाज से यहां अनेक लोगों ने अपने-अपने इमामबाड़े स्थापित कर रखे हैं. दर्जनाधिक इमामबाड़े यहां मिल जायेंगे और सभी यादें संजोये हैं.

लोग बताते हैं कि यहां के किसी भी इमामबाड़े का इतिहास डेढ़ सौ, दो सौ वर्ष से कम नहीं है. इमामबाड़ा इमाम बांदी बेगम, इमाम बाड़ा चमोडोड़िया, इमामबाड़ा मीर शिफायत हुसैन, इमामबाड़ा होश अजीमाबादी, इमामबाड़ा शीश महल, इमाम बाड़ा शाहनौजा, इमामबाड़ा डिप्टी अली अहमद खान आदि इमामबाड़ों की दास्तान 18वीं सदी से कायम है. इनमें कुछ हिंदू-मुस्लिम यकजहती के भी प्रतीक हैं.

इमामबाड़ा कहते किसे हैं

इमामबाड़ा का अर्थ है धार्मिक स्थल यानी, वह पवित्र स्थान या भवन जो विशेष रूप से हजरत अली (हजरत मुहम्मद के दामाद) तथा उनके बेटों हसन और हुसैन के स्मारक के रूप में निर्मित किया गया हो. इमामबाड़ा कर्बला में हुई लड़ाई से जुड़ा है. मुहर्रम महीना की 10 तारीख जिसे योम आशूरा भी कहते हैं, को कर्बला के मैदान में यजीदियों ने हजरत हुसैन उनके परिवार सहित 72 साथियों को शहीद कर दिया था. इमामबाड़ों में शिया समुदाय की मजलिसें और अन्य धार्मिक समारोह होते हैं. शिया लोग हर वर्ष मुहर्रम के महीने में कर्बला की याद में बड़ा शोक मनाते हैं. सुन्नी मुसलमानों के यहां भी इमामबाड़ों की परंपरा मिलती है.

पटनासिटी में शिया-सुन्नी, हिंदू-मुसलमान में कोई भेद नहीं है. इमामबाड़ा के प्रति सभी का अकीदत समान है. मुहर्रम के मौके पर निकलने वाले ताजिए या तो कर्बला में गाड़ दिए जाते हैं या इमामबाड़ों में रख दिए जाते हैं. पटना पहले पाटलीपुत्र के नाम से जाना जाता था. फिर इसका नाम अजीमाबाद पड़ गया.पटना सिटी अब पुराना पटना कहलाता है.

इमामबाड़ा इमाम बांदी बेगम वक्फ स्टेट

162939828807 imambara bandi

यह सबसे बड़ा इमामबाड़ा है. इसका निर्माण गाजीपुर निवासी बंगाल के सूबेदार शेख अली अजीम ने 1717 में कराया था. शेख अजीम से चलता हुआ यह सिलसिला इमाम बांदी तक पहुंचा और बाद के दिनों में इमान बांदी ही पूरी जायदाद की मालिक हो गयीं. यह इमामबाड़ा गुलजारबाग के नाम से प्रसिद्ध है. 1894 में बेगम साहिबा इस दुनिया से कूच कर गयीं, लेकिन इंतेकाल से चार साल पहले 1890 में उन्होंने अपनी पूरी संपति वक्फ कर दी थी. यहां की 7 और 9 मुहर्रम को रिकतआमेज मजलिस मशहूर है. मिर्जा दबीर अलीयहां लगातार 19 सालों तक लखनऊ से अजीमाबाद आ कर खुद का लिखा मर्सिया पढ़ते रहे. मिर्जा दबीर उर्दू के मशहूर शायर थे. इस इमामबाड़ा से पटना सिटी की बड़ी-बड़ी मजलिसें अंजाम पाती हैं. यहां से मुहर्रम में 72 ताबूत के साथ 72 अलम निकाले जाते हैं.

इमामबाड़ा चमोडोड़िया

162939831407 Imambara chamododiya

इसका संस्थापक एक गैर मुस्लिम सुनार था. यहां एक मुहर्रम से 9 मुहर्रम तक हर समय शहनाई बजा करती थी. शहनाई में नौहा और सलाम होते थे. रोजाना शाम के समय नजर वो नेयाज वालों की भीड़ लगी रहती थी. लोग मुरादों की पूर्ति के लिए चिल्ला बांधा करते थे. आज भी यह आस्था कायम है. बताते हैं कि सोने-चांदी के बड़े-बड़े अलम हुआ करते थे. 3 और 10 मुहर्रम को अखाड़ा निकला करता था. बहुत बड़ा ताजिया होता था. जिसमें शतुर्मुर्ग के अंडे लटके रहते थे. जुलूस में 50 हाथी हुआ करते थे. पटना की सबसे मारूफगंज मंडी यहीं पर स्थित है. कहते हैं कि हिंदू दुकानदार पहले इस इमामबाड़ा पर मत्था टेकने के बाद ही दुकान खोलते हैं. यहां मुरादें मांगने हिंदू-मुसलमान सब आते हैं. यह इमामबाड़ा हिंदू-मुस्लिम साझी विरासत का प्रतीक है.

इमामबाड़ा हाकिम नाजिम हुसैन

मितनघाट स्थित इस इमामबाड़ा में इलाहाबाद से तशरीफ लाने वाले मौलाना जफर अहमद अब्बास मजलिस से खिताब करते रहे हैं. अभी भी आशूरा के दिन एक मजलिस आयोजित होती है.

इमामबाड़ा शीश महल

इसे हाकिम जुल्फिकार अली ने 1711 में बनवाया था. यहां 1960 से बाजाब्ता अजादारी का आगाज हुआ. आज भी इस इमामबाड़ा से 72 ताबूत का जुलूस निकलता है. इस इमामबाड़ा को शीशमहल मस्जिद के नाम से भी जानते हैं. अंजुमन ए मासूमिया का आगाज भी यहीं से हुआ है.

इमामबाड़ा होश अजीमाबादी

ईरान से आये नवाब सरफराज हुसैन खान ने इस इमामबाड़ा का निर्माण कराया था. यहां 1886 से ही अजादारी का रिवाज कायम है. होश अजीमाबादी इसके मुतवल्ली थे. जब तक होश साहब हयात रहे, खुद ही मुहर्रम की 9 तारीख को मर्सिया पढ़ते थे. यहां मर्द-औरत दोनों की मजलिस होती है. यहां पटना के सभी अंजुमने मजलिस करती हैं. काफी पुराना इमामबाड़ा है यह. सरफराज खान की बेगम बीबी मख्दूमन ने इमामबाड़ा के अहाते में ही एक मस्जिद की भी तामीर करायी थी.

इमामबाड़ा सैयद अली सादिक

1957 से लगातार एक ही नौहा निरंतर पढ़ा जा रहा है. 9 मुहर्रम को जुल्फिकार का जुलूस भी यहां से निकलता है.

इमामबाड़ा डिप्टी अली अहमद खान अली

डिप्टी अहमद खान मर्सियानिगार थे. ज्यादातर फारसी अशआर पढ़ा करते थे. उनके बेटे सैयद अली खान मुहर्रम के महीने में फारसी के कलाम पढ़ा करते थे.अभी भी 20 से 29 मुहर्रम तक यहां अशरा होता है. 1890 से यह अशरा कायम है. 21 रमजान को हजरत अली का ताबूत भी निकलता है .

क्या कहते हैं इरशाद अली आजाद

162939841607 irshad ali

बिहार राज्य शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष रहे इरशाद अली आजाद कहते हैं कि विरासतों को सुरक्षित और संजोकर रखना हम सब की जिम्मेदारी है. इमामबाड़े मुस्लिम संस्कृति के दस्तावेज हैं. हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत करते हैं. यह इमामबाड़े देश की धरोहर हैं. 18वीं सदी की इमारतें, रिवायत अब कम दिखाई पड़ती हैं. पटना सिटी के इमामबाड़ों को देखकर गर्व महसूस होता है. क्योंकि ये कर्बला की याद को ताजा करते हैं. बातिल की शिकस्त और हक की जीत की ताबीर हैं यह. जहां शिया-सुन्नी, हिंदू-मुसलमान का तफरीक नहीं है. मालूम हो कि ज्यादातर इमामबाड़े शिया वक्फ बोर्ड के मातहत हैं. इरशाद अली आजाद ने अपने कार्यकाल में इमामबाड़ों को विकसित और विस्तारित करने का काम बहुत तेजी से किया था. मगर उन्हें दूसरा मौका नहीं मिला. जिसका उन्हें और उनके समर्थकों को अफसोस है.